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RADIO IN PRISON: CELEBRITIES HOLDING THE BOOK

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Apr 16, 2025

खबरों के शोर में इंसानियत की आवाजें: Prabhat Khabar: 15 April, 2025




तेईस साल का बेटा अपने माता-पिता और 20 साल की बहन की हत्या करता है, फिर सुबह की सैर पर निकल जाता है. घर लौटने पर वह एक कहानी गढ़ता है. पुलिस को फोन करता है और कहता है कि उसकी गैरमौजूदगी में किसी ने उसके घर में इतनी भयंकर वारदात कर दी है. दिल्ली पुलिस जांच में जुटती है और कुछ ही घंटों बाद इस नतीजे पर पहुंचती है कि इन हत्याओं को अंजाम देने वाला खुद यही युवक था. नौ जुलाई, 2024 को दिल्ली की गीता कॉलोनी के पास 38 साल के एक व्यक्ति को 100 दुर्लभ और संरक्षित कछुए के बच्चों के साथ गिरफ्तार किया गया. ये सारे कछुए एक बैग में ठूंसे हुए थे और एक दोपहिया वाहन पर ले जाये जा रहे थे. जब पुलिस ने वाहन को रोका, तो एक बड़े काले रंग के बैग में बहुत सारे कछुए ठुंसे हुए थे. पुलिस ने इन कछुओं को तुरंत एक पुलिस स्टेशन में ले जाकर पानी से भरी बाल्टियों में रखा. छोटे-छोटे उन कछुओं को बाद में कड़कड़डुमा अदालत में जज के सामने पेश किया गया. आरोपी को भी अदालत में पेश किया गया. पुलिस ने देखा कि इतने दिनों से बैग में बंद रहने के कारण कछुओं की हालत बदतर थी. पुलिस ने उन्हें तुरंत पानी में रखा और उनके लिए पानी, बीज और फल का इंतजाम किया. शाम को उन कछुओं को असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य ले जाया गया. इस तरह से उन कछुओं को बचा लिया गया और इस कहानी का सुखद अंत हुआ.

सोलह जनवरी, 2022 को शुरू हुई सच्ची और संजीदा कहानियों के इस पिटारे का नाम है- ‘किस्सा खाकी का’. यह देश के किसी भी पुलिस विभाग की पहली पॉडकास्ट सीरीज है, जिसका संचालन और प्रस्तुतिकरण दिल्ली पुलिस करती है. कहानियां लोगों को जोड़ने का काम करती हैं, यह बात पुलिस ने भी समझी. वर्ष 2022 में जब ‘किस्सा खाकी का’ की शुरुआत को मंजूरी दी गयी, तब किसी को भी इस बात का इल्म नहीं था कि देखते ही देखते कहानियों का यह पिटारा पुलिस स्टाफ के मनोबल को इस कदर बढ़ाएगा और लोगों के दिलों में जगह बनाने लगेगा. अब तक हुए तमाम अंकों में हर बार किसी ऐसे किस्से को चुना गया, जो किसी अपराध के सुलझने या फिर मानवीयता से जुड़ा हुआ था.

दिल्ली पुलिस अपने सोशल मीडिया के विविध मंचों पर हर रविवार को दोपहर दो बजे एक नयी कहानी रिलीज करती है. आकाशवाणी भी अब इन पॉडकास्ट को अपने मंच पर सुनाने लगी है. दिल्ली पुलिस ने अपने मुख्यालय में ‘किस्सा खाकी का’ एक सेल्फी पॉइंट बना दिया है, ताकि स्टाफ यहां पर अपनी तस्वीरें ले सके और प्रेरित हो सके. आवाज की उम्र चेहरे की उम्र से ज्यादा लंबी होती है. ‘तिनका-तिनका जेल रेडियो’ जेलों की आवाजों को आगे लाने का काम एक लंबे समय से कर रहा है. ‘किस्सा खाकी का’ और ‘तिनका-तिनका जेल रेडियो’, ये दोनों पॉडकास्ट भारत के अनूठे और नवीन पॉडकास्ट हैं. मार्च महीने में ‘तिनका जेल’ पॉडकास्ट ने अपने 99 अंक पूरे किये. इन दोनों पॉडकास्ट की सफलता की कुंजी इनके नयेपन, सकारात्मकता और गतिमयता में है. कंटेंट खालिस हो, तो वह हौले-हौले अपनी जगह बनाने की आश्वस्ति देता ही है. यही वजह है कि शॉट्स की भीड़ और मसालेदार खबरों के शोर में इंसानियत की आवाजें उठने लगी हैं. आवाजों की ये कोशिशें इस अंधेरे संसार में दीया बन रही हैं. लेकिन यह मानना होगा कि जिस तेजी से झूठ वायरल होता है, मनोरंजन और मसाला बिकता है, उतने ही धीमे ढंग से जिंदगी की नर्माहट स्वीकारी जाती है. जेल और पुलिस, दोनों का परिचय अंधेरे से है. दोनों के साथ पारंपरिक तौर से नकारात्मकता की छवियां जुड़ी हैं. अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही इन क्रूर छवियों को तोड़ना चुनौती है. दूसरे, समाज जिस आसानी से बाजारी प्रचार से मिली खबरों को पलकों में बिठाता है, वैसा उन कहानियों के साथ नहीं होता, जिनसे सिर्फ संवेदना जुड़ी होती है. दुनिया शायद ऐसे ही चलती है.

बहरहाल, समय की गुल्लक में ऐसी कहानियों का जमा होना तिनका भर उम्मीद को बड़ा विस्तार तो देता ही है. लेकिन सच्ची और संजीदा कहानियों की कुछ सीमाएं भी होती हैं. मसालेदार स्वाद का आदी हो चुका दर्शक-श्रोता कई बार सीधी-सादी कहानियों का ज्यादा स्वाद नहीं ले पाता. जिस तरह से दूरदर्शन की छवि को उसके सरकारीपन से जोड़ कर दर्शक उसके पक्ष को कई बार नजरअंदाज करके शोर भरे चैनलों को तरजीह देने लगता है, ठीक वैसे ही बिना हंगामे के अपनी बात कहते ‘किस्सा खाकी का’ और ‘तिनका जेल रेडियो’ जैसे पॉडकास्ट वायरल नहीं होते. लेकिन इससे इन पॉडकास्ट के वजूद के होने की वजह कम नहीं होती. सेहतमंद कंटेंट और सेहतमंद खाना एक उम्र और समझदारी के बाद ही जिंदगी में शामिल हो पाता है.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

आलेख के प्रकाशन के लिए प्रभात खबर और आशुतोष जी का शुक्रिया।

Dec 30, 2024

2024: खबर का गडमड संसार और भटकता मीडिया का छात्र: डॉ. वर्तिका नन्दा

30 December, 2024

खचाखच भरी हुई पत्रकारिता की क्लास में अगर बच्चों से पूछा जाए कि वो अपने कोर्स की पढ़ाई पूरा करने के बाद क्या करना चाहेंगे, तो करीब अस्सी प्रतिशत का जवाब होता है कि वे जनसंपर्क को अपना करियर बनाएंगे. इस पूरे साल में पत्रकारिता का लेखाजोखा देने के लिए यह एक पंक्ति काफी है. कुछ बरस पहले तक पत्रकारिता एक अलग हिस्सा था और जनसंपर्क पूरी तरह से अलग. खांचे तय थे. पत्रकार अपने आप को सिर्फ पत्रकार ही कहलाना चाहता था, उसके नाम के साथ पीआर शब्द को जोड़ना अक्षम्य अपराध था। इसीलिए बीते सालों के कई पत्रकार आज भी पूरी तरह से खांटी पत्रकारिता ही करते हैं. 2024 के जाते-जाते पत्रकार और पीआर आपस में घुल-मिल गए हैं। अब खालिस पत्रकारिता को खोजना होगा। इसी खोज के दिवास्वप्न में यह साल विदाई ले रहा है।

2024 के इस साल में टीवी पत्रकारिता की तत्परता, सजगता, उत्साह में कोई कमी नहीं दिखी. लेकिन गंभीरता, ओजस्विता, विश्वसनीयता के बढ़ने के आसार भी नहीं दिखे. मुख्यधारा की मीडिया की पकड़ से बड़ी खबरें नहीं छूटीं, लेकिन स्थानीयता फिर भी दरकिनार दिखी. खास तौर पर वहां, जहां पर टीआरपी के उछाल के आने की ज्यादा उम्मीद नहीं थी. कुल मिलाकर टीवी पत्रकारिता का शोर, प्रसार-प्रचार बढ़ा लेकिन सम्मान और भरोसे का दायरा घटता ही दिखाई दिया. 

इस बीच ब्रूट जैसे कई मंच एक नएपन से उभरते हुए दिखे. ऐसे मंचों ने न्यूज रूम की तेजी को तो अपनाया लेकिन उसकी चपलता-व्याकुलता-चंचलता से खुद को बचाए रखा. वे सतर्क रहे. उन्होंने artificial intelligence की सीमाओं को भी समझा और लोगों के स्वाद को भी लेकिन लोगों के स्वाद के अनुरूप अपने मूल्यों के साथ उन्होंने कोई खास समझौता नहीं किया. ऐसे कुछ मंचों ने गंभीरता के साथ पत्रकारिता की. टीआरपी को अपने सरोकारों में रखा लेकिन उसे सर्वोपरि नहीं बनाया. मानवीयता से लैस कहानियों को ऐसे कुछ शानदार मंच मिले। 

इस बीच दर्शक के पास विकल्पों का इजाफा हुआ है। टीवी चैनलों की ही तरह दर्शक भी जल्दबाज हुआ है। वह तुरंत प्रतिक्रियाएं देने लगा है। उसका सब्र घटा है। अब टीवी का प्रस्तोता भी बेसब्र, उससे सुनने-देखने वाला भी। यह बेसब्री अब जिंदगी का राग बन गई है।  

इस साल सिटीजन जर्नलिज्म ने भी एक नया उछाल देखा. पूरी दुनिया में जिसके पास भी मोबाइल और इंटरनेट है, वो अपने आप को काफी हद तक एक सिटीजन जर्नलिस्ट कह सकता है. इसी जर्नलिज्म ने प्रिंट, टेलीविजन और ऑनलाइन मीडिया के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी की है. यह बात अलग है कि टीवी आज भी सिटीजन जर्नलिज्म को न तो गंभीर मानता है और न ही बहुत ज़रूरी, लेकिन उसके स्वीकार न करने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता क्योंकि सिटीजन जर्नलिस्ट अब अपनी जगह बनाने के लिए तैयार है.

इस साल एक और नई बात हुई. भारत सरकार के कई मंत्रालय अब खुद पत्रकारिता से के गुर सीखने लगे लगे हैं। इसी तरह से पुलिस और एमसीडी जैसे विभाग भी. यहां पर किस्सा खाकी का नाम की पॉडकास्ट सीरिज का जिक्र जरूरी लगता है. किसी भी पुलिस विभाग का यह इकलौता ऐसा पॉडकास्ट है, जो पुलिस की सच्ची कहानियों को जगह देता है. इनका संचालन पूरी तरह से दिल्ली पुलिस खुद करती है. इसका मतलब यह भी है कि कई विभाग अब अपने लिए न्यूजरूम खुद बना रहे हैं. वे अपनी खबर खुद चुनते हैं, उसे लिखते हैं, उसे सजोते हैं, उसे प्रकाशित या ब्रॉडकास्ट करते हैं. इसके लिए उन्हें बाहरी मीडिया की जरूरत नहीं पड़ती. तो आज जब पत्रकारिता का छात्र यह कहता है कि वह जनसंपर्क में अपना करिर बनाना चाहता है तो वो इस सच से काफी हद तक वाकिफ नहीं है कि जनसंपर्क के लिए कई विभाग अब खुद ही सक्षम और सबल होने लगे हैं. अकेले पीआर के दम पर टिकना अब आसान न होगा। यह भी है कि खबर की समझ के बिना पीआर महज दिखावा और झूठ का पुलिंदा ही हो सकता है। समझ और गंभीरता का कोई और पर्याय हो ही नहीं सकता।  

न्यूजरूम खबर देने में पीछे नहीं रहे लेकिन तब भी आदर्श कहलाने के हकदार न बन सके। मामला ऐसा गडमड हुआ कि न्यूज चैनल न तो विशुद्ध तौर पर खबर दिखा पा रहे हैं और न ही अकेला मनोरंजन। फिल्म उसके सांचे में आता नहीं। न्यूजी मनोरंजन के इस घालमेल का सबसे ज्यादा फायदा हुआ है- ओटीटी प्लेटफार्म को। न्यूज मीडिया ने मनोरंजन और सनसनी देने की अपनी जो प्रवृत्ति और छवि बनाई, उसके विकल्प के तौर पर अब ओटीटी सामने आकर खड़ा हो गया है। उसने न्यूजरूम की चतुरता अपना ली है और बाजार के संकेत को समझ लिया है। न्यूजरूम का गडमड होना ओटीटी वालों के लिए सुहानी बयार लेकर आया है। इससे ओटीटी की फसल का लहलहाना स्वाभाविक है।

जाते-जाते यह साल यह सबक भी देकर जा रहा है कि जरूरत से ज्यादा आत्मविश्वास और खुशफहमी विस्तार को रोकने की वजह बनती है. इसलिए मीडिया की दुनिया में अब पताका उन्हीं की फहराएगी जिनके पाँव ज़मीन पर होंगे और आँखें आसमान पर.

(डॉ. वर्तिका नन्दा: मीडिया शिक्षक और जेल सुधारक/ प्रमुख, पत्रकारिता विभाग, लेडी श्रीराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय/ vartikalsr@gmail.com)

Link: https://www.samachar4media.com/vicharmanch-news/dr-vartika-nanda-wrote-an-article-on-the-media-in-2024-65159.html







Sep 19, 2024

2024: लेख का शीर्षक: आजादी की आंखें होती हैं लड़कियां- पुस्तक संस्कृति (वर्ष 9, अंक 5, सितंबर-अक्तूबर 2024) नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत सरकार: वर्तिका नन्दा


लेख का शीर्षक: आजादी की आंखें होती हैं लड़कियां- वर्तिका नन्दा    

पुस्तक संस्कृति (वर्ष 9, अंक 5, सितंबर-अक्तूबर 2024)   पेज: 39-40

नेशनल बुक ट्रस्ट, भारत सरकार
                           










 

May 31, 2023

2022: Media Column: जिस वैकल्पिक मीडिया की बात सबसे कम होती है, मुझे उसी में एक तिनका उम्मीद दिखाई दे रही है




मेरी नजर में मीडिया के लिए साल 2022 डर, अपराध, जेल, भ्रष्टाचार व शोर और उससे मिल सकने वाले मुनाफे का साल रहा। मीडिया ने साल की शुरुआत से लेकर अंत तक इन्हें भरपूर प्राथमिकता दी। अपराधों की नई किस्मों को परोसा। अपराध करने के नुस्खे-तरीके बताए और साथ में चलते-चलते अपराध की खबर भी बताई। पूरे साल कई बड़े नामों को जेल में जाते और जेल से बाहर आते हुए देखा गया। जेल में मालिश से लेकर जेल से रिहा हुए चार्ल्स शोभराज तक, टुकड़ों में गर्लफ्रेंड को काट देने वाले से लेकर काली कमाई के मामले में गिरफ्त में आए नामचीन लोगों तक मीडिया ऐसी तमाम खबरें ढूंढता रहा, जो उसे टीआरपी बटोरने में मदद करतीं। लेकिन, इनमें सामाजिक सरोकार नहीं था। विशुद्ध मुनाफा था। मीडिया कारोबार और मुनाफे से चिपका रहा। पूंजी में जान अटकी रही।


2022 गलतफहमियों में गुजर गया। ढेर सारे चैनलों के बीच में किसी एक पत्रकार की मजबूत छवि बनने का दौर कभी का चला गया। अब न ही जनता को बहुत सारे पत्रकारों के चैनल याद रहते हैं और न ही खुद उनके नाम। जो पत्रकार कुछ दिन तक टीवी पर नहीं दिखता, जनता उसका नाम भूलने लगती है। मतलब यह कि अब नाम गुमने लगे हैं। इसके बावजूद आत्ममुग्धता और गुमान के नकली संसार में जी रहे मीडिया को अपना अक्स देखने की फुर्सत अब तक नहीं मिली है। फिर पत्रकारों का वर्गीकरण भी हुआ है। स्टार एंकर-रिपोर्टरों को छोड़ दें तो बाकी की स्थिति में कोई बड़ा फेरबदल नहीं हुआ है। वे आज भी उतने ही लाचार हैं, जितने पहले थे। चैनलों को किसी के होने या न होने से लेशमात्र भी फर्क नहीं पड़ता। यह तबका संवेदना के लायक है, लेकिन उससे हमदर्दी करने वाले भी नदारद हैं।


वैसे नामों का गुम जाना इस बात को साबित करता है कि भीड़ में  जगह बनाना मुश्किल काम है। दूसरा संकट मीडिया की उस गिरती विश्वसनीयता का है, जिसे वो मानने को राजी नहीं है। इसलिए मैं मिसाल जेल की ही देना चाहूंगी। भारतभर की जितनी जेलों में मैं गई, उसमें बंदियों ने इस बात को बड़ा जोर देकर कहा कि उनका विश्वास न तो कानून पर है और न ही मीडिया पर। कानून पर विश्वास न होने की वजह समझ में आ सकती है, लेकिन जेल की कोठरी में बैठा कोई बंदी मीडिया पर भरोसा न रखता हो, यह बात सोचने की जरूर है। कड़वी बात शायद बंदी ही कह सकता है। लेकिन, उसकी भी सुनता कोई नहीं।


ठीक 10 साल पहले तक नया साल आने पर ज्यादा चर्चा इस बात पर होती थी कि क्या प्रिंट मीडिया अपने अस्तित्व को बचा पाएगा और क्या निजी चैनलों के बीच में उसको खुद को संभाल पाना मुश्किल होगा? आज 2022 में चिंता इस बात की नहीं है कि प्रिंट का क्या होगा, चिंता इस बात की जरूर है कि टीवी न्यूज के शोर के बीच अब खबर का क्या होगा? खबरों के खालिसपन पर अब खुद खबरनवीसों का यकीन नहीं रहा। दर्शक भी खबर परोसने वाले को देखकर हौले-से मुस्कुरा देता है। देखते ही देखते न्यूज मनोरंजन में बदल गई और मनोरंजन न्यूज में। भाषा और व्याकरण दयनीय बना दिए गए हैं। सही भाषा लिखने वाले ढूंढने की कोशिशें भी अब नहीं होतीं। बाजार में सब स्वीकार्य है बशर्ते पैसा आता हो। तिजोरी ने भाषा को शर्म से भर दिया है। इस सारे गड़बड़झाले के बीच खबर की स्थिति सर्कस के जोकर की तरह होने लगी है। हां, एक फर्क यह जरूर है कि सर्कस में एक ही जोकर होता है और वही सर्कस का नायक भी बना रहता है।


एक और चिंता मीडिया की पढ़ाई को लेकर है। अब क्या पढ़ाया जाए, क्या बताया जाए और क्या सिखाया जाए। छात्र जो सीखता है वो न्यूजरूम में मिलता नहीं और न्यूजरूम में है, उसे पढ़ाया नहीं जा सकता। मीडिया शिक्षण एक ऐसे चौराहे पर आ खड़ा हो गया है, जहां बैलेंस और वैरिफिकेशन की बात को छात्र हजम नहीं कर पाता। क्लासरूम की पढ़ाई जिस शालीन खबर की बात करती है, वो टीवी के पर्दे पर दिखती नहीं। 

दंगल में बदल चुके टीवी न्यूज चैनलों की भीड़ में यह लेखा-जोखा करना मुश्किल लगता है कि मीडिया आने वाले सालों में अपनी छवि को कैसे सुधारेगा।


दर्शक को वैसा ही मीडिया मिल रहा है, जिसके वह योग्य है। मीडिया का स्तर दर्शक के स्तर को भी रेखांकित कर रहा है। इसलिए अब मीडिया से शिकायत न कीजिए। गौर कीजिए कि आप दिनभर क्या सुनना, देखना, बोलना और पढ़ना पसंद करते हैं। पढ़ने की घटती परंपरा ने तेजी से परोसे जा रहे समाचारों की जमीन तैयार की है। आपके जायके का स्वाद ही मौजूदा मीडिया है और जायके में सुधार है-वैकल्पिक मीडिया। इसलिए जिस मीडिया की बात सबसे कम होती है, मुझे उसी में उम्मीद दिखाई दे रही है।

पब्लिक सर्विस ब्रॉडकास्टर की अपनी सीमाएं और प्राथमिकताएं हैं। प्राइवेट मीडिया अपनी साख के संकट से जूझ रहा है। तीनों तरह के मीडिया में यह बात साफ तरह से उभरने लगी कि आने वाला साल वैकल्पिक मीडिया के लिए एक नई जगह खड़ी कर सकता है। दिल्ली पुलिस ने 2022 की जनवरी को अपने पॉडकास्ट ‘किस्सा खाकी का’ की शुरुआत की। हर रविवार को प्रसारित होने वाली इस कड़ी में हर बार एक नया किस्सा होता है। पुलिस जैसा बड़ा और दमदार महकमा भी अब अपने लिए वैकल्पिक प्लेफार्म तैयार कर चुका है। यह एक शुरुआत है। नागरिक पत्रकारिता बड़ा आकार ले रही है। सोशल मीडिया ने जैसे पत्रकारों की फौज ही खड़ी कर दी है। हर किसी के पास कहने-पोस्ट करने के लिए कुछ है। वे अब किसी पर आश्रित नहीं। ऐसे में एक तिनका उम्मीद बाकी है, क्योंकि उम्मीद और हौसले के लिए तिनका भी बहुत होता है।


link-https://www.samachar4media.com/vicharmanch-news/senior-journalist-dr-vartika-nanda-expressed-her-views-about-the-media-58983.html


Oct 20, 2022

2022: 'किस्सा खाकी का': माइक से झरतीं मानवीयता की तिनका तिनका कहानियां

54 साल के राजीव अपनी ड्यूटी के बाद महीने में कम से कम एक बार दिल्ली के एम्स औऱ सफदरजंग अस्पताल के बाहर इंतजार कर रहे लोगों को खाना खिलाने का काम करते हैं। इसके लिए वे अपने आसपास के परिवारों को कुछ दिन पहले सूचना देते हैं, ढाई सौ घरों से भोजन जमा करते हैं और एक दिन में कम से कम एक हजार लोगों को भोजन करवाते हैं।

इसी तरह एक हैं- संदीप शाही। उन्हें अब कई दिल्लीवाले हेल्मेट मैन कहते हैं। वे अपनी नौकरी के साथ-साथ अपने पैसों से लोगों में हल्मेट बांटते हैं ताकि लोगों में सड़क सुरक्षा के प्रति जागरुकता आए।

यह इंसानियत से लबरेज कहानियां हैं। इन्हें सामने लाने का काम किया है- दिल्ली पुलिस के नए पॉडकास्ट 'किस्सा खाकी का' ने। पूरे देश के किसी भी पुलिस विभाग का यह पहला पॉडकास्ट है जो पुलिस स्टाफ और अधिकारियों के संवेदना से भरे हुए यागदान को आवाज के जरिए पिरो रहा है।

कहानियां लोगों को जोड़ने का काम करती हैं। इस बात को पुलिस ने भी समझा। इसी साल जनवरी के महीने में जब 'किस्सा खाकी का' की शुरुआत हुई, तब किसी को भी इस बात का इल्म नहीं था कि देखते ही देखते कहानियों का यह पिटारा पुलिस स्टाफ के मनोबल को इस कदर बढ़ाएगा और लोगों के दिलों में जगह बनाने लगेगा। अब तक हुए तमाम अंकों में हर बार किसी ऐसे किस्से को चुना गया जो किसी अपराध के सुलझाने या मानवीयता से जुड़ा हुआ था।

पहला किस्सा 'थान सिंह की पाठशाला' पर था। दिल्ली पुलिस के इस कर्मचारी ने कोरोना के दौरान भी लाल किले के पास गरीब बच्चों को पढ़ाने का समय निकालता था। उसकी सांसें जैसे इन बच्चों में समाई हैं।

दिल्ली पुलिस अपने सोशल मीडिया के विविध मंचों पर हर रविवार को दोपहर दो बजे एक नई कहानी रिलीज करती है। आकाशवाणी भी अब इन पॉडकास्ट को अपने मंच पर सुनाने लगा है। दिल्ली पुलिस ने अपने मुख्यालय में किस्सा खाकी का एक सेल्फा पाइंट बना दिया है ताकि स्टाफ यहां पर अपनी तस्वीरें ले सके और प्रेरित हो सके। दिल्ली पुलिस की पहली महिला जनसंपर्क अधिकारी सुमन नलवा व्यक्तिगत तौर पर इन कहानियों की चयन प्रक्रिया में जुटती हैं। इन किस्सों की स्क्रिप्ट औऱ आवाज मेरी है। इन कहानियों को स्वैच्छिक सुनाया जाता है, बिना किसी आर्थिक सहयोग लिए।

आवाज की उम्र चेहरे की उम्र से ज्यादा लंबी होती है। तिनका तिनका जेल रेडियो जेलों की आवाजों को आगे लाने का काम एक लंबे समय से कर रहा है। तिनका तिनका जेल रेडियो और किस्सा खाकी का- यह दोनों ही पॉडकास्ट भारत के अनूठे और नवीन पॉडकास्ट हैं। इन दोनों की सफलता की कुंजी इनके नएपन, सकारात्मकता और गतिमयता में है। कंटेट खालिस हो तो वो हौले-हौले अपनी जगह बनाने की आश्वस्ति देता ही है। यही वजह है कि शॉट्स की भीड़ और मसालेदार खबरों के शोर में इंसानियत की आवाजें उठने लगी हैं। आवाजों की यह कोशिशें इस अंधेरे संसार में दीया बन रही हैं।

लेकिन यह मानना होगा कि जिस तेजी से झूठ वायरल होता है, मनोरंजन और मसाला बिकता है, उतने ही धीमे ढंग से जिंदगी की नर्माहट स्वीकारी जाती है। जेल और पुलिस- दोनों का परिचय अंधेरे से है। दोनों के साथ पारंपरिक तौर से नकारात्मकता की छवियां जुड़ी हैं। अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही इन क्रूर छवियों को तोड़ना चुनौती है। दूसरे, समाज जिस आसानी से बाजारी प्रचार से मिली खबरों को पलकों में बिठाता है, वैसा उन कहानियों के साथ नहीं होता जिनसे सिर्फ संवेदना जुड़ी होती है। दुनिया शायद ऐसे ही चलती है। बहरहाल, समय की गुल्लक में ऐसी कहानियों का जमा होना तिनका भर उम्मीद को बड़ा विस्तार तो देता ही है।

(वर्तिका नन्दा जेल सुधारक हैं। जेल और अपराध बीट पर विशेषज्ञता है। दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में पत्रकारिता विभाग की प्रमुख)

Oct 1, 2022

2022: सुकून का पिटारा बनता वैकल्पिक मीडिया

 1 अक्तूबर, 2022

सुकून का पिटारा बनता वैकल्पिक मीडिया

डॉ. वर्तिका नन्दा 

(मीडिया शिक्षक, विश्लेषक और जेल सुघारक)

नई सदी आने तक पत्रकारिता पढ़ने आने वाले छात्रों की आंखों में कुछ चमकते हुए चेहरे बसा करते थे। वे गर्व के साथ अपने प्रिय एंकरों को अपना रोल मॉडल बताते। धीरे-धीरे सब बदलने लगा। पत्रकारिता पढ़ने वाले बच्चे अब किसी भी नाम को लेने से पहले सकुचाते हैं। वे एंकर बनना चाहते हैं लेकिन किसी एक एंकर जैसा बनना नहीं। टीवी पर चिल्लाने वाले नाखुश चेहरे उनके रोल मॉडल नहीं हैं। कोई एंकर कभी कहीं दिख-मिल जाता है, तो उसके साथ सेल्फी लेना चाहते हैं लेकिन साथ में यह जोड़ना नहीं भूलते कि सब बस एक जैसे ही हैं। यह वो बदलाव है जिसे मीडिया न उगल सकता है, न निगल सकता है। इन छात्रों को पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी करने तक भी मीडिया में कोई रोल मॉडल दिखाई नही देता। वे इस नतीजे पर जल्दी पहुंच जाते हैं कि स्क्रिप्ट को लिखने, उसे पढ़ने वाला और इन्हें नौकरी पर रखने वाला- सभी पूंजी से संचालित हैं। यह ऐसी नाटकीय टीवी पत्रकारिता है  जो जल्दबाजी में गढ़ी गई और आगे बढ़ती चली गई। 

ऐसे में दुविधा दो तरफ से आई। पत्रकारिता के छात्र फैसला नहीं कर पाते कि आखिरकार किस तरह की पत्रकारिता उन्हें करनी है। उनके सामने कोई खास मॉडल है ही नहीं। हमाम में सब नंगे दिखते हैं और लगता है कि वे पत्रकारिता के सिवा सब करते हैं। 

दूसरी दुविधा ऑडियंस की है। टीवी के दर्शक को अब किसी पर यकीन नहीं। उसे न तो एंकर भरोसे लायक लगते हैं, न रिपोर्टर। वो हर चैनल पर कुछ  सेकंड के लिए रुकता है और तुरंत दूसरे चैनल पर चला जाता हैं। खबर के सही होने का आकलन करता है। दर्शक यह नहीं जतलाना चाहता कि वो किसी एक चैनल को बेहद पसंद करता है। जिस तरह एंकर को अपने फॉलोअर के हमेशा बने रहने का भरोसा नहीं, वैसे ही दर्शक को भी उसके सत्यवाचक होने का भरोसा नहीं। इस पूरी भागमभाग में यकीन का कद बहुत छोटा हुआ है।

इस सब के बीच टीआरपी अपना काम बदस्तूर कर रही है पर यहां भी एक बदलाव आया है। जनता किसी के सामने खुलकर यह नहीं कहती कि जो चैनल नंबर एक या नंबर दो पर है, वो हमेशा उसी को देखता है। अदल-बदल की राजनीति की तरह जनता भी अदल-बदल की भाषा बोलने और बतियाने लगी है।

अब एंकर जब किसी चैनल की नौकरी छोड़कर दूसरे चैनल पर जाता है तो जनता पर उसका भी कोई असर नहीं पड़ता। जनता जानती है कि यह पत्रकारिता वो नहीं है जिसे गांधी और भगत सिंह ने इज्जत और पहचान बख्शी थी। कमीज से लेकर जूते तक सब प्रायोजित है। उसी तरह से एंकर की स्क्रिप्ट भी। टीवी पर चिल्लाता हुआ एंकर एंटरटेनमेंट करता है। न्यूज को मनोरंजक बनाता है। उसकी भूमिका मनोरंजन से शुरु होती है और सिरदर्दी पर अंत। खबर के सिरे तक जाने से उसका ताल्लुक नहीं।  दर्शक भी टीवी न्यूज को उतनी देर ही देखता है जिससे मनोरंजन मिल जाए, सतही जानकारी भी। 

दूसरे देशों में आज भी ज्यादातर चैनल एंकर को चिल्लाने का काम नहीं देते। लेकिन हमारे यहां एंकर अपनेआप में नाटक का एक पूरा पैकेज है। उसका चिल्लाना, हिलना-डुलना, आंखों की भाषा, बॉडीलैंग्वेज, हाथों को आड़े-तिरछे घुमाना या फिर टेबल पर जोर-जोर से हाथ मारने लगना, अपने पैर पटकना,बात-बात पर रूठ-सा जाना या फिर तुनकते रहना- यह सब पत्रकारिता का हिस्सा कभी नहीं था। कई बार वे स्क्रीन पर पहलवान लगने लगते हैं और चैनल पर आए गैस्ट को जोर-जोर से डांटने लगते हैं। अतिथियों को डांटा-दुत्कारा जा सकता है, इस परंपरा के जनक भी न्यूज एंकर ही हैं।  न्यूज देखते हुए कई बार सर्कस के जोकर याद आते हैं लेकिन वे भी अपनी मर्यादा में रहते थे। यहां मर्यादा का कोई काम नहीं। यहां चिल्लाने वाला सिकंदर है। हां, एक काम बराबरी का हुआ। चिल्लाने का जितना काम एकंर करते हैं, उतना ही एंकरनियां भी। 

अब जब सुप्रीम कोर्ट यह कहता है कि चिल्लाने वाले एंकरों को अपनी सीमा में रहना चाहिए तो उसे कहने में बड़ी देर हो गई। टीवी का न्यूजरूम स्क्रिप्ट को तैयार ही इस तरह से करता है कि उसमें पूरी तरह से नाटकबाजी हो सके। अब यह उसकी आदत में शुमार है जिसका छूटना मुश्किल है। 

युवा पीढ़ी को दूरदर्शन के शांत एंकर नहीं भाते। स्वाद और मसाला निजी चैनलों में है। दूरदर्शन की खबर सही हो सकती है लेकिन रोज खिचड़ी कौन खाए। हां, चैनलों से बदहजमी होती है तो कुछ देर दूरदर्शन के दर्शन कर लिए जाते हैं। 

इसका असर दो तबकों पर सबसे ज्यादा पड़ा है। एक पत्रकारिता का छात्र और दूसरा अपराधी। जेलों पर काम करते तिनका तिनका फाउंडेशन बीते कई सालों से जेल बंदियों से संवाद कर रहा है। कई बंदी खुलकर बताते हैं कि उन्हें अपराध को करने की कथित प्रेरणा टीवी के किसी एंकर से मिली जिसने अपराध की कहानियां उत्साह से बताईं।उकसाया। अब कुछ एंकर अपराधी जैसे भी देखने लगे हैं। अपराध शो करता एंकर कुछ ऐसा जतलाता है मानो वो खुद उस अपराध का चश्मदीद गवाह हो या खुद ही अपराध करके सीधे स्टूडियो चले आया हो। एंकर अपराध तो बताता रहा लेकिन इस बात पर जोर देना जानबूझकर टालता गया कि अपराध करने का अंतिम पड़ाव जेल ही होती है। अपराधियों ने तो यह माना कि अपराध करने वाला एक सुखद, चमकीली ज़िंदगी को हासिल करता है। असलियत जेल आकर पता चली।

हाल ही दिनों में दिल्ली पुलिस ने अपने पॉडकास्ट- " किस्सा खाकी का" की शुरूआत की। अब तक हुए 40 अंकों का सार यह भी रहा कि पुलिस जब अपराधी को पकड़ कर पूछताछ करती है तो कई अपराधी मानते हैं कि अपराध करने के मोह के पीछे टीवी की भाषा और छवियों का भी असर होता है। यहां पुलिस और अदालतें मौन हैं और मजबूर भी। खुद उन्हें टीवी लुभाता है। वे क्या कहें। टीवी पर दिख जाने के लोभ से उनका छुटकारा नहीं। इसलिए टीवी न्यूज की इस चॉकलेट के जरिए जो जहर पूरे हिंदुस्तान और फिर दुनियाभर में फैला है, उसे ठीक करने का समय बहुत पहले गुजर चुका। न तो दूरदर्शन अपने को बदलेगा, न निजी चैनल। ऐसे में वैकल्पिक मीडिया ही इकलौता रास्ता बचता है।

यहां जोड़ दूं जेल का रेडियो। कोरोना आया तो जिला जेल आगरा और फिर हरियाणा की जेलों में शुरु किया गया तिनका तिनका जेल रेडियो बंदियों की जिंदगी में सुकून लेकर आया। जेल में टीवी देखने की बजाय वे जेल के रेडियो को सुनने लगे। यह उनके अपने बनाए कंटेट पर आधारित है। वे खुद उसके निर्माता हैं, खुद उपभोक्ता। बिना किसी आर्थिक सहयोग के खालिस तरीके से चलने वाला जेल का यह रेडियो सूचना, खबर, ज्ञान, संगीत और मनोरंजन- सब देता है। यहां रेडियो जॉकी चिल्लाता नहीं। वो इत्मीनान और भरोसा बांटता है। जेल के अंदर की दुनिया ने जेल के बाहरवालों से बेहतर अपने लिए जादुई पिटारा खोज लिया है। इसने साबित किया है कि बिना विज्ञापन, चिल्लाहट और प्रायोजकों के चलने वाले ऐसे यज्ञ किसी भी मीडिया हाउस के आकार और प्रचार से कहीं आगे हैं। आने वाले सालों में जो समुदाय अपने लिए खुद एक वैकल्पिक मीडिया गढ़ लेंगे, वे ही रहेंगे- शोर के बीच सुखी।


(1 अक्टूबर को राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित )


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Jan 9, 2021

2021: रेप पीड़ितों की निजता का उल्लंघन करने का मामला, HC का दिल्ली सरकार को नोटिस

रेप पीड़ितों की निजता का उल्लंघन करने का मामला, HC का दिल्ली सरकार को नोटिस 

नई दिल्लीदिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली सरकार, सोशल मीडिया संगठनों और विभिन्न मीडिया को नोटिस जारी किया है. उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की है जिन्होंने बलात्कार पीड़ितों की निजता के अधिकार का उल्लंघन किया है. बलात्कार पीड़ितों की संदर्भ पहचान के साथ उनके द्वारा प्रकाशित किसी भी जानकारी को लेने या वापस लेने के लिए. हाईकोर्ट के इस निर्णय को लेकर सुनिए लोगों ने क्या कहा.

'स्वागत योग्य है फैसला'

दिल्ली महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अमृता धवन ने कहा कि जैसा हाईकोर्ट की सुनवाई के दौरान सामने आया है, जो रेप विक्टिम है उनके और उनकी आईडेंटिटी को हमें प्रिजर्व करके रखना चाहिए. कई ऐसे संगठन है या न्यूज़ चैनल टीआरपी के दौर में अपनी नैतिक जिम्मेदारी को भूल जाते हैं. इस बात को हमे सेंसटिव तरीके से देखना चाहिए की जो रेप विक्टिम है, हमें उनकी आईडेंटिटी रिवील नहीं करनी चाहिए. जब रेप पीड़िता का नाम उजागर होता है, तो उसके बहुत से परिणाम उसे भुगतने पड़ते हैं. इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए सभी को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पीड़िता के नाम उजागर ना हो.

'हो कठोर करवाई'

दिल्ली भाजपा कार्यकारिणी की सदस्य टीना शर्मा ने कहां की रेप पीड़िता का नाम उजागर करना अपने आप में संवैधानिक अपराध है. कोर्ट की टिप्पणी है जिसमें उन्होंने सभी संगठनों को यह निर्देश दिया है कि सोशल मीडिया पर जो भी इस तरह के कंटेंट हैं चाहे वह सोशल मीडिया ग्रुप हो या किसी न्यूज़ चैनल की कोई खबर जिससे वे पीड़िता की पहचान उजागर होती है हटाया जाए, यह फैसला स्वागत योग्य है.

'स्वागत योग्य है फैसला'

मीडिया विशेषज्ञ वर्तिका नंदा ने कहा कि हाईकोर्ट के निर्णय का हम स्वागत करते हैं. जब हम पत्रकारिता के बच्चों को पढ़ाते हैं, तो उन्हें शुरुआत में ही इस बात की जानकारी देनी जरूरी है कि किसी रेप पीड़िता का नाम उजागर ना किया जाए. स्मार्ट जर्नलिज्म और सेंसिटिव जर्नलिज्म अलग-अलग हो सकते हैं. कई बार पत्रकारों ने खुलकर रेप विक्टिम का नाम उजागर किया है.

'10 हजार मामले निजता का उल्लंघन'

वर्तिका नंदा ने कहा हर साल लगभग 10 हजार ऐसे मामले दर्ज होते हैं, जिनमें औरतों की निजता का उल्लंघन होता है. दर्ज होने वाले मामले और हकीकत में होने वाले मामलों के आंकड़ों में एक बड़ा फासला है. जहां तक मैं समझती हूं हाईकोर्ट के इस निर्णय के बाद हम सब में यह जानने की उत्सुकता भी जरूर रहेगी कि इसे लेकर कितने मीडिया हाउसेस और एनजीओ पर कार्रवाई होती है, जिन्होंने रेप विक्टिम की पहचान को उजागर किया है.

'पहचान उजागर करने से अंधेरा में होगा जीवन'

ऑल इंडिया महिला सांस्कृतिक संगठन की उपाध्यक्ष शारदा दीक्षित ने कहा है कि किसी भी रेप पीड़िता की पहचान को उजागर करना उसके आने वाले जीवन को और अंधेरों में डालना होता है, इसीलिए ऐसा नहीं किया जाना चाहिए. उन्होने कहा कि महिला उत्पीड़न की घटनाएं हमारे समाज में लगातार बढ़ती जा रही है और महिलाओं के प्रति होते अपराध में बहुत कम ऐसा होता है, कि महिलाएं जीवित बच पाती हैं और उनके साथ होते अपराध के बाद उनका आगे का जीवन बिता पाना बहुत कठिन हो जाता है, ऐसे में अगर उनकी पहचान को उजागर किया जाएगा. तो आगे का जीवन सामान्य रूप से नहीं बिता पाती, क्योंकि आज भी हमारे समाज में महिलाओं के साथ कोई अपराध होता है तो हमारा समाज महिला को ही कसूरवार मानता है.

Courtesy: https://react.etvbharat.com/hindi/delhi/state/new-delhi/delhi-hc-directed-to-take-action-against-them-who-disclose-the-identity-of-rape-victim/dl20210108173429900